आज़ादी के बाद, १९५० और १९६० के दशकों में, भारत को अपनी आबादी को भुखमरी से बचाने के लिए अक्सर अमरीकी अनाज पर निर्भर होना पड़ता था। फिर ‘हरित क्रांति’ यानी ‘ग्रीन रेवोलुशन’ के बदौलत, वर्ष १९७१ तक भारत अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया। ये संभव हुआ, नए किस्म के उपजाऊ अनाज, सिंचाई व्यवस्था में बढ़ोत्तरी, और रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों के व्यापक इस्तेमाल से। लेकिन आत्मानिर्भरता के लिए देश को कीमत अदा करनी पड़ी। क्या असर हुआ है नई खेती प्रणाली का छोटानागपुर प्रान्त के आदिवासी गाँवों में? चित्रों समेत, एक सरल कहानी द्वारा इसका वर्णन किया है अनुमेहा यादव ने अपनी पुस्तक ‘आवर राइस टेस्ट्स ऑफ़ स्प्रिंग’ में, जो बच्चों और वयस्कों दोनों के लिए लिखी गयी है।
- एक्स (ट्विटर) पर अनुमेहा यादव
- वर्डप्रेस पर अनुमेहा के ब्लॉग
- ‘आवर राइस टेस्ट्स ऑफ़ स्प्रिंग’ अमेज़न पर
- ‘आवर राइस टेस्ट्स ऑफ़ स्प्रिंग’ का चित्रण किया है, बेंगलुरु स्थित ‘स्पिटिंग इमेज’ डिज़ाइन कलेक्टिव ने
- छोटानागपुर क्षेत्र में धान के देसी बीजों के पुनः प्रयोग पर ‘द वायर’ में अनुमेहा का आलेख
- कृषि वैज्ञानिक डॉ अनुपम पॉल के साथ धान के बीजों के संरक्षण पर ‘द वायर’ में अनुमेहा का इंटरव्यू
- ‘प्लास्टिक’ ‘फोर्टीफाईड’ चावल का आदिवासी क्षेत्रों में वितरण पर ‘द वायर’ में अनुमेहा की फिल्म
- कृत्रिम चावल के राशन द्वारा वितरण पर ‘द हिन्दू’ के साथ अनुमेहा का पॉडकास्ट
*सुधार — चर्चा के 36:36वें मिनट में अनुमेहा उल्लेख करती हैं ‘आदिवासी जाति’ का, मगर वे स्पष्ट कर देना चाहती हैं कि यहाँ ‘आदिवासी समाज’ कहना उपयुक्त होगा।
(‘सम्बन्ध का के की’ के टाइटिल म्यूज़िक की उपलब्धि, पिक्साबे के सौजन्य से।)

